Published By : Pravesh Gautam
Apr 30,2020 | 08:55:50 am IST | 51918
मामा, राजा और महाराजा
प्रवेश गौतम। कोरोना महामारी के बीच तत्कालीन कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री व मंत्री घरों में लॉक डाउन हैं। पूरी संभावना है कि इस दौरान यह सभी 15 महीनों के कार्यकाल पर आत्म मंथन भी कर रहे होंगे। तो वहीं कुछ राजनेता आगामी विधानसभा उपचुनाव को जीतने की रणनीति पर भी विचार कर रहे होंगे। परंतु इन राजनेताओं को सत्तासीन करवाने वाली मध्यप्रदेश की आम जनता तो केवल अपनी जीविका के बारे में ही चिंतित है।
संभवतः जनता ने कांग्रेस सरकार के कार्यकाल का आंकलन नहीं किया होगा। वहीं पुनः भाजपा के सत्तासीन होने और उपचुनावों के नतीज़ों के बाद नई भाजपा सरकार को मिलने वाले दीर्घकालीन कार्यकाल के बारे में भी कम ही मतदाता विचार कर रहे होंगे। इस दौरान यह भी एक यक्ष प्रश्न ही है की जिस भाजपा सरकार के बदलने पर घोटालों की जांच और उनके प्रमाणित होने के बाद दोषियों को सज़ा की उम्मीद जनता कर रही थी, उन पर अब पानी भी फिर गया है? ऐसे में क्या यह कहना ठीक होगा कि प्रदेश की जनता की मजबूरी ही है की नागनाथ और सांपनाथ के अलावा तीसरा कोई विकल्प सामने नहीं है।
हालांकि महाराज अर्थात ज्योतिरादित्य सिंधिया जी यह सुनहरा अवसर प्रदेश की जनता को दे सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्यों नहीं किया यह तो एक विचारणीय प्रश्न है। किंतु इस पर विचार अवश्य करना चाहिए। मप्र में त्रिशंकु विधानसभा के आसार बनेंगे यह तो दिसंबर 2018 के पहले कदाचित ही किसी ने सोचा हो, लेकिन यह हुआ। उसके बाद अस्तित्व में आई सरकार का क्या हश्र हुआ यह तो सबके सामने है। हालांकि इस पतन में पुत्रमोह भी एक अहम पहलू है। बहरहाल हम आते हैं मुख्य बिंदु पर, तीसरा विकल्प कब और कैसे।
महाराज की नाराजगी तो नवंबर 2019 में ही सामने आ गई थी जब उन्होंने ट्विटर एकाउंट में बदलाव किया था। इस दौरान महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा गठबंधन टूट चुका था और एनसीपी के कद्दावर नेता और शरद पवार के भतीजे अजीत पवार ने भाजपा के साथ मिलकर रातों रात उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी। हालांकि यह युति ज्यादा दिनों तक अस्तित्व में नही रही। किंतु इसी समय मप्र में महाराज ने ट्विटर एकाउंट के माध्यम से कांग्रेस आलाकमान को चेता दिया था कि - मैं भी अजीत पवार, हो सकता हूँ। परंतु राजा और कमलनाथ ने सफलतापूर्वक आलाकमान को विश्वास में ले लिया, नतीजा महाराज का राजनीतिक भविष्य संकटमय दिखने लगा।
इसी समय प्रदेश की जनता कदाचित यही प्रतीक्षा कर रही थी कि चुनाव फिर से होंगे। लेकिन मार्च आते आते मध्यावधि चुनाव उपचुनाव में बदल गए और मामाजी पुनः एक बार प्रदेश में सत्तासीन हो गए।
यदि महाराज को कांग्रेस की सरकार गिरानी ही थी तो उन्होंने भाजपा का दामन क्यों थामा? महाराज भाजपा के साथ गठबंधन भी कर सकते थे और भाजपा के छोटे भाई के तौर पर अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाकर प्रदेश को तीसरा राजनीतिक विकल्प भी दे सकते थे। महाराज प्रदेश में सर्वमान्य नेता हैं। समय की मांग को देखते हुए, संभवतः भाजपा भी इसका समर्थन कर सकती थी। यदि ऐसा किया होता तो निश्चय ही कट्टर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भाजपा के झंडे न उठाने पड़ते और एक मित्र दल के रूप में दोनों सत्ता पर आसीन हो जाते। जिस प्रकार कई प्रदेशों में भाजपा ने गठबंधन धर्म अपनाते हुए एनडीए सरकार को चलायमान किया है, उसी प्रकार मध्यप्रदेश में भी हो सकता था। इसका सीधा लाभ प्रदेश की जनता (मतदाता) को भी मिलता। कदाचित यह भी सम्भव था कि जिस प्रकार बिहार में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं उसी प्रकार एक दिन महाराज भी मप्र में सिंहासन की शोभा बढ़ा सकते थे। इससे सांप भी मर जाता और लाठी भी न टूटती। खैर अब जो हुआ सो हुआ किंतु तीसरा विकल्प राजनीति के लिए अति आवश्यक हो गया है। क्योंकि नागनाथ और सांपनाथ की छुपी मित्रता केवल पुण्य आत्माओं को ही दिखती है। दुर्भाग्य से ऐसी पुण्य आत्माओं की गिनती आम मतदाताओं में नहीं होती।